साथियों को लेकर प्रभाकर नीचे उतरा। चिंता की हल्की रेखा मन पर। बुआ के पास पहुँचकर कहा, "इस आदमी के साथ चली जाओ, यह जैसा कहे करो।
कोई हाथ नहीं उठाएगा। बाद को जहाँ कहिएगा पहँचा देगा।" बुआ को जान पड़ा, एक अपना आदमी, जिसको औरत अपना आदमी कह सकती है, बोला। वे सहमत हुईं।
प्रकाश ताली लेकर चला।
इकत्तीस
रूस्तम के जैसे पर लग गए, ऐसा भगा। फैर से दिल धड़का, पैर उठते गए। खेत से भगे सिपाही की तरह सिंहद्वार में घुसा। बात रही, हथियार नहीं डाला। हाँफ रहा था। जैसे दम निकल रहा है। 3-4 सिपाही बाज़ार गए थे, बाकी हैं। मुन्ना भी है।
रुस्तम को देखकर लोग चकराये। मुन्ना की आँख चढ़ गई। पूछा, "क्या है रुस्तम?"
रुस्तम बोल न पाया।
रुस्तम के घबराए हुए हाँफते रहने पर सिपाहियों को उतना आश्चर्य न हुआ जितना तलवार लिए रहने पर।
जटाशंकर का काठ में पैर पड़ा। धीरज उनके स्वभाव में है। बैठे देखते रहे।
रुस्तम ने आधा घंटा लिया। मुँह धोया गया, कुल्ले कराये गए, सिर पर पानी के छींटे मारे गए, पंखा झला गया।
रुस्तम ने कहा, "देव है। आदमी ऐसा नहीं होता। गढ़ के अंदर ऐसा आदमी !"
लोग कुछ नहीं समझे। ऐसे आदमी के बारे में किसी से नहीं सुना, नहीं देखा।